एक कथा प्रसंग में सुना कि प्रभो श्रीरामचन्द्र जी ने अपने वनवास क़ाल के १४ वर्ष में से१२ वर्ष चित्रकूट में बिताए थे। चंचल मन चित्रकूट के बारे में भांति भांति के चित्र उकेरने लगा। कल दशहरा का दिन भी है ,मन श्रीराम के चरणों में लगा है। घुमक्कड़ जिज्ञासा जगने लगी सोचा की क्यों न चित्रकूट धाम की यात्रा की जाय। बस फिर क्या था फोन में गूगल बाबा से जानकारी लेने लगे। रात होते होते यात्रा का विचार अपना साकार रूप लेने लगा। अब बस मित्रो को तैयार करना था, फोन उठाया और मणि जी से अपने विचार साझा किया मित्र अभिषेक तो सदैव तैयार रहते है। आकाश भाई थोड़े असमंजस में थे पर सुबह यात्रा पर निकलने का प्रोग्राम निश्चित हो गया । पूरी रात चित्रकूट धाम के बारे में सोचते सोचते बिताई सुबह हो गई । गाड़ी निकालकर थोड़ा साफ किया साथ ही सबको एक बार फोन करके सहजनवा में मिलने को कहा। पर सदैव की भांति आकाश जी अभी तक असमंजस में ही थे। फोन पर २-४ ---सुनाने के बाद वो तैयार हुए पर आते आते ११:०० बजा दिए। खैर यात्रा प्रारंभ हुआ ।...... सहजनवा से आगे बढ़े १४० किमी के बाद अपने आराध्य श्रीराम का पावन अयोध्या धाम था , ऐसे कैसे आ