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एक व्यंग ट्रैफिक नियमों पर

*एक व्यंग " ट्रैफिक नियमों पर"*

सच बताए तो लगभग 10से12 साल हो गए इन सड़कों से गुज़रते। मगर आज तक ट्रैफिक नियमो के बारे में हम समझ ही नहीं पाए की वास्तव में नियम क्या है जब हम अपने बाएं की तरफ से निकलते है तो सामने से कोई अपने दाएं से आंख दिखाता हुआ आ रहा होता है और फिर जब हम उसकी खुली हुई आंखों से डरकर दाए पटरी पर जाते है तो उधर से भी कोई आख दिखाने के साथ बड़बड़ाते हुए सामने आ जाता है। आंख दिखाने से मेरा मतलब अपनी गाड़ी की हेड लाइट जलाने से था जो मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि इसे प्रयोग कहां करते है जल्दी निकलने में या सामने वाले को डराने में।
खैर इन सब समस्यायों से जूझते हुए हम भी अब इसे ही नियम मान लेते है और सामने वाले को अपने से छोटा दिखाने के चक्कर में आमने सामने गाडियां खड़ा करना तो अब रोज का काम हो गया है।
पर सुना है अब ट्रैफिक नियमो में बदलाव हुआ है और जुर्माना बढ़ गया है।

पर सच बताए तो पंद्रह फीट ऊपर टंगी ट्रैफिक लाइट्स हमें जलती हुई दिखती ही नहीं है अब आप ही बताए वाहन चलाते हुए हम सामने देखे या पंद्रह फीट ऊपर लगे लाइट को। हम तो आज भी अपने वाहन चलाने के हुनर पर विश्वास करते हुए दाए बाए काट कर ट्रैफिक सिग्नल पार कर लेते है। लेकिन अब वक़्त बदल रहा है और हमें अब अपने आप को भी बदलना पड़ेगा वरना अपनी खाली जेब और भी खाली हो जाएगी।
पर सुधार की आवश्यकता सरकार को भी है खाली जुर्माना बढ़ाने से हालात नहीं सुधरने वाले।
अब ट्रैफिक लाइट्स की ही बात करें तो इन्हे आज तक मैंने जलते नहीं देखा। 'न जलने' को लेकर इनमें ज़बरदस्त एकता है। एक-आध भी जलकर बगावत नहीं कर रही। शायद अब अस्तित्व बोध भी खो चुकी हैं। नहीं जानती कि इनका इस्तेमाल क्या है? इतनी ऊपर क्यों टंगी हैं? कुछ पोस्ट, जो आधे झुके हैं, लगता है अपने ही हाल पर शर्मिंदा है।
हमारे यहां ज़्यादातर लैम्प पोस्ट्स की यही नियति है। लगने के बाद कुछ दिन जलना और फिर फ्यूज़ हो, खजूर का पेड़ हो जाना! वक़्त आ गया है कि देश के तमाम डिवाइडरों से इन खम्बो को उखाड़ा जाए। विकसित देशों को संदेश दिया जाए कि विकास के नाम पर तुमने बहुत मूर्ख बना लिया। व्यवस्था के नाम पर तुम्हारे सभी षडयंत्रों को हम तबाह कर देंगे। वैसे भी व्यवस्था इंसान को मोहताज बनाती है। उसकी सहज बुद्धि ख़त्म करती है। हम हिंदुस्तानी हर काम अपने हिसाब से करने की आदी हैं। व्यवस्था में हमारा दम घुटता है। हमें मितली आती है।

हमने तय किया है कि स्ट्रीट लाइट्स के बाद हम ज़ैबरा क्रॉसिंग को ख़त्म करेंगे। वैसे भी जिस देश में नब्बे फीसदी लोगो ने कभी ज़ैबरा नहीं देखा वहां किसी व्यवस्था को ज़ैबरा से जोड़ना स्थानीय पशुओं का सरासर अपमान है। आवारा पशुओं की हमारे यहां पुरानी परम्परा है। क्या हम इस काबिल भी नहीं है कि हमारे पशुओं में ऐसी कोई समानता ढूंढ पाएं। सड़क पर घूमते किसी भी दो रंगें कुते को ये सम्मान दे उसे अमर किया जा सकता है।
इसके अलावा ट्रैफिक सिग्नल्स भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ है। क्या ये सिग्नल्स हमें बताऐंगे कि कब जाना और कब नहीं। इंसानों में जब तक संवाद कायम है उन्हें मशीन के हाथों नियंत्रित नहीं होने चाहिए। वैसे भी गालियों का हमारा शब्दोकोष काफी समृद्ध है। ईश्वर और पुलिस से ज्यादा यही गालियां हमारा साथ देती आई हैं। तेरी....तेरी.....

बीच सड़क में बैठी गाय के साइड से निकाल, सामने आते ट्रक से बच, पीछे बजते हॉर्न को बर्दाश्त कर, खुले ढक्कन वाले गटर के चंगुल से निकल हम अक्सर ही घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आते जाते रहे हैं। और उस पर भी हमारा ज़िंदा होना इस बात का सबूत है हम किसी स्ट्रीट लाइट, ज़ैबरा क्रॉसिंग और ट्रैफिक सिग्नल के मोहताज नहीं। दुनिया वालो तुम्हारी व्यवस्था तुम्हें मुबारक! भगवान के लिए हमें हमारे हाल पर छोड़ दो।

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